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Satkatha Ank Index |
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1 |
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2 |
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3 |
सत्कथा की महिमा |
4 |
जीवन का वास्तविक
वरदान |
5 |
सत्कथाओं की
लोकोत्तर महत्ता एवं उपयोगिता |
6 |
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7 |
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8 |
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9 |
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10 |
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11 |
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12 |
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13 |
कुमारी केशिनी का
त्याग और प्रह्लाद का न्याय |
14 |
सत्कथा का महत्त्व |
17 |
धीरता की पराकाष्ठा
[मयूरध्वज का बलिदान] |
18 |
मेरे राज्य में न चोर
हैं न कृपण हैं, न शराबी हैं न व्यभिचारी हैं |
19 |
वह तुम ही हो |
20 |
सर्वश्रेष्ठ
ब्रह्मनिष्ठ |
21 |
सर्वोत्तम धन |
22 |
ब्रह्म क्या है? |
23 |
पश्चात्तापका परिणाम
( श्रीरामलालजी ) |
24 |
उसने सच कहा |
25 |
सत्य-पालन |
26 |
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27 |
योग्यताकी परख |
28 |
सम-वितरण |
29 |
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30 |
भक्तका स्वभाव (
श्रीसुदर्शनसिंहजी ) |
31 |
निष्कामकी
कामना-इक्कीस पीढ़ियाँ तर गर्यी |
32 |
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33 |
समस्त
लौकिक-पारलौकिक सुखोंकी प्राप्तिका साधन भगवद्धक्ति |
34 |
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35 |
ऐसो को उदार जग
माहीं |
36 |
श्रीराधाजीके
हृदयमें चरणकमल |
37 |
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38 |
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39 |
धन्य कौन |
40 |
दुर्योधनके मेवा
त्यागे |
41 |
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42 |
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43 |
हनुमानूजीके अत्यल्प
गर्वका मूलसे संहार |
44 |
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45 |
एकमात्र कर्तव्य
क्या है? |
46 |
भगवान् सरल भाव
चाहते हैं |
47 |
भगवान्की
प्राप्तिका उपाय |
48 |
महापुरुषोंक अपमानसे
पतन |
49 |
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50 |
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51 |
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52 |
लक्ष्मी कहाँ रहती
हैं? |
53 |
धर्मो रक्षति
रक्षित: |
54 |
भगवान् कहाँ-कहाँ
रहते हैं? |
55 |
धर्मनिष्ठ सबसे अजेय
है |
56 |
धर्मरक्षामें
प्राप्त विपत्ति भी मड्भलकारिणी होती है |
57 |
धन्य कौन? |
58 |
सदाचारसे
कल्याण |
59 |
हमें मृत्युका भय
नहीं है |
60 |
नास्तिकताका
कुठार |
61 |
सदाचारका बल |
62 |
गर्भस्थ शिशुपर
माताके जीवन का गम्भीर प्रभाव पड़ता है |
63 |
दूषित अन्नका प्रभाव |
64 |
आर्य-कन्याका आदर्श |
65 |
आर्य-नारीका आदर्श |
66 |
मैं स्वेच्छासे
परपुरुषका स्पर्श नहीं कर सकती |
67 |
कैंसे आचरणसे नारी
पतिको बशमें कर लेती है? |
68 |
कीड़ेसे महर्षि
मैत्रेय |
69 |
नल-दमयन्तीके
पूर्वजन्मका वृत्तान्त |
70 |
अनन्यता-मैं किसी भी
दूसरे गुरुमाता-पिताकों नहीं जानता |
71 |
तुम्हारे ही लिये
राम वन जा रहे हैं |
72 |
मेंरे समान पापों का
घर कौन? तुम्हारा नाम याद करते ही पाप नष्ट हो जायेंगे |
73 |
मैं तुम्हारा चिऋणी-केवल
आपके अनुग्रहका बल |
74 |
सप्तर्षियोंका
त्याग |
75 |
तत्त्वज्ञानके
श्रवणका अधिकारी |
76 |
परात्पर तत््वकी
शिशु-लीला |
77 |
सब चमार हैं |
78 |
यह सच या वह सच ? |
79 |
आपका राज्य कहाँतक
है ? |
80 |
संसारके सम्बन्ध
भ्रममात्र हैं |
81 |
संतानके मोहसे
विपत्ति |
82 |
शुकदेवजीकी समता |
83 |
शुकदेवजीका वैराग्य |
84 |
तपोबल |
85 |
वरणीय दु:ख है, सुख
नहीं |
86 |
स्त्रीजित होना
अनर्थकारी है |
87 |
कामासक्तिसे विनाश
|
88 |
कामवश बिना बिचरे
प्रतिज्ञा करनेसे विपत्ति |
89 |
परस्त्रीमें आसक्ति
मृत्युका कारण होती है |
90 |
क्रोध मत करो, कोई किसीको
मारता नहीं |
91 |
अभिमानका पाप
(ब्रह्माजीका दर्पभड्ग ] |
92 |
मिथ्याभिमान |
93 |
सिद्धिका गर्व |
94 |
राम-नामकी अलौकिक
महिमा [वेश्याका उद्धार] |
95 |
विश्वासकी विजय [
श्वेत मुनिपर शंकरकी कृपा] |
96 |
शबरीकी दृढ़ निष्ठा |
97 |
आपदि कि करणीयम्,
स्मरणीयं चरणयुगलमम्बाया: |
98 |
सुदर्शनपर जगदम्बाकी
कृपा |
99 |
सच्ची निष्ठा
[गणेशजीकी कृपा] |
100 |
लोभका दुष्परिणाम
|
101 |
आदर्श निर्लभी |
102 |
सत्य-पालनकी दृढ़ता |
103 |
|
104 |
ईमानदार व्यापारी |
105 |
वह सत्य सत्य नहीं,
जो निर्दोषकी हत्यामें कारण हो |
106 |
यज्ञमें पशुबलिका
समर्थन असत्यका समर्थन है |
107 |
आखेट तथा असावधानीका
दुष्परिणाम |
108 |
यक्षमें या देवताके लिये
की गयी पशुबलि भी पुण्योंको नष्ट कर देती है |
109 |
दूसरोंका अमड्भल
चाहनेमें अपना अमड्ल पहले होता है |
110 |
परोपकार महान धर्म |
111 |
अर्जुनकी
शरणागतवत्सलता और श्रीकृष्णके साथ युद्ध |
112 |
जीर्णेद्धारका पुण्य |
113 |
श्रैतका उद्धार |
114 |
विचित्र परीक्षा |
115 |
विलक्षण दानवीरता
|
116 |
शोकके अवसरपर हर्ष
क्यों? |
117 |
उल्लासके समय खिन्न
क्यों? |
118 |
उत्तम दानकी महत्ता
त्यागमें है, न कि संख्यामें |
119 |
भगवती सीताकी शक्ति
तथा पराक्रम |
120 |
थीौर भाताकां आदर्श
|
121 |
पतिको रणमें भेजते
सपयका विनोद कक |
122 |
शञ्जी शंमा ट्रेषपर
विजय सती है |
123 |
-घोर क्लेशमें भौ
सत्पथपर अडिग शहनेजाला भहापुरुष है |
124 |
सेवा-निहाका
चमत्कार |
125 |
सत्कारसे शत्रु भी
मित्र हो जाते हैं |
126 |
अतिथि-सत्कारका
प्रभाभ |
127 |
शैरड-जिचित्र
आतिथ्य |
128 |
सम्मान तथा भधुर
भाषणसे राक्षस भी वशीभूत |
129 |
चाटुकारिता
अनर्थकारिणी है |
130 |
मैत्री -निर्वाह
[कर्णकी महत्ता] |
131 |
अलौकिक भ्रातृप्रेम |
132 |
अनोखा प्रभु-विश्वास
और प्रभु-प्रीति |
133 |
थिश्वास हो तो
भगवान् सदा समीप हैं |
134 |
सबसे दुबली
आशा |
135 |
पार्वतीकी परीक्षा
कि |
136 |
चोरीका
दण्ड |
137 |
मड्डिका चैराग्य
|
138 |
ु:खदायी परिह्ासका
कटु परिणाम [खगमका क्रोध] |
139 |
परिष्ठाससे ऋषिके
तिरस्कारका कुफल [ परीक्षित्॒को शाप] |
140 |
आश्रितका त्याग
अभीष्ट नहीं [ धर्मराजकी धार्मिकता] |
141 |
मृत्युका कारण
प्राणीका अपना ही कर्म है |
142 |
दुरभिमानका परिणाम [बर्बरीकका
वध] |
143 |
जुआरीसे राजा
[स्वर्गमें अद्भुत दाता] |
144 |
टृढ़ निष्ठा |
145 |
किसी भी बहानेसे
धर्मका त्याग नहीं कर सकता |
146 |
नियम-निष्ठाका
प्रभाव |
147 |
आसक्तिसे बन्धन |
148 |
डश्रद्धा -धर्य और
उद्योगसे अशक्य भी शक्य होता हैं |
149 |
लक्ष्यके प्रति
एकाग्रता |
150 |
सच्ची लगन क्या नहीं
कर सकती |
151 |
सच्ची निष्टाका
सुपरिणाम |
152 |
सबसे बड़ा
आश्चर्य |
153 |
भगवत्कथाब्रवणका
माहात्म्य |
154 |
भगवद्वीताका अद्भुत
माहात्म्म |
155 |
गायका मूल्य |
156 |
गो-सेवाका शुभ
परिणाम |
157 |
वनयात्राका
गो-दान |
158 |
सत्सड्रकी
महिमा |
159 |
सच्चे संतका शाप भी
मड़लकारी होता है |
160 |
क्षणभरका कुसज्ज भी
पतनका कारण होता है |
161 |
क्षणभरका सत्सड्र
कलुषित जीवनको भी परमोज्वल कर देता है |
162 |
किसीको धर्ममें
लगाना ही उसपर सच्ची कृपा करा है |
163 |
वैष्णव-सड़॒का
श्रेष्ठ फल |
164 |
चित्रध्वजसे चित्ररला |
165 |
सु-भद्रा (पं
श्रीसूरजचन्दजी सत्यप्रेमी 'डाॉगीजी) |
166 |
धैर्यसे पुन: सुखकी
प्राप्ति |
167 |
आत्मप्रशंसासे पुण्य
नष्ट हो जाते हैं |
168 |
जरा-मृत्यु नहीं टल
सकती |
169 |
विद्या अध्ययन
करनेसे ही आती है |
170 |
जहाँ मन, वहीं
हम |
171 |
बुरे काममें देर
करनी चाहिये |
172 |
प्रतिज्ञा [
त्रेतामें राम अवतारी, द्वापरमें कृष्णमुरारी ] |
173 |
गृश्र और उलूकको
न्याय |
174 |
पुण्यकार्य कलपर मत
टालो |
175 |
तर्पण और
श्राद्ध |
176 |
|
177 |
रोम-रोमसे 'जय
कृष्ण' की ध्वनि |
178 |
कृतप्न पुरुषका मांस
राक्षस भी नहीं खाते |
179 |
जटिल
प्रक्नोत्तर |
180 |
पूर्ण समर्पण [
तेरा, सो सब मेरा] (श्रीहरकिशनजी झबेरी) |
181 |
जरा-सा भी गुण देखो,
दोष नहीं |
182 |
एक मुट्ठी अनाजपर भी
अधिकार नहीं |
183 |
परोपकारमें
आनन्द |
184 |
आत्मज्ञानसे ही
शान्ति |
185 |
भक्त विमलतीर्थ |
186 |
जगतू कल्पना है
संकल्पमात्र है |
187 |
सर्वत्याग |
188 |
साधुताकी
कसौटी |
189 |
सत्संकल्प |
190 |
विचित्र
न्याय |
191 |
विचित्र सहानुभूति |
192 |
सदुपदेश |
193 |
सहनशीलता |
194 |
धनका सदुपयोग |
195 |
ब्राह्मण |
196 |
अग्रिपरीक्षा |
197 |
सच्ची माँग |
198 |
आत्मदान |
199 |
जाको राख साइयाँ,
मारिसकै नाकोय |
200 |
गुणग्राहकता |
201 |
धनी कौन ? |
202 |
युक्ताहारविहारस्य
योगो भवति दुःखहा' |
203 |
अपनी खोज |
204 |
वैराग्यका क्षण |
205 |
संन्यासका मूल्य |
206 |
परीक्षाका माध्यम |
207 |
सहज अधिकार |
208 |
निर्वाण-पथ |
209 |
कोई घर भी मौतसे
नहीं बचा |
210 |
सच्चा साधु |
211 |
समझौता |
212 |
सच्चे सुखका बोध |
213 |
|
214 |
आकर्षण |
215 |
आत्मकल्याण |
216 |
दानकी मर्यादा |
217 |
आत्मशान्ति |
218 |
|
219 |
|
220 |
धर्मविजय |
221 |
यह धन मेरा नहीं,
तुम्हारा है |
222 |
अर्जुनकी उदारताका
अभिमानभड़ [कर्णका चन्दन-दान] |
223 |
अर्जुनका भक्ति-अभिमानभड़
[दिगम्बरकी भक्ति-निष्ठी] |
224 |
श्रीनारदका
अभिमान-भड़ |
225 |
नारदका कामविजयका
अभिमान-भड्ढ |
226 |
इच्धका गर्व-भड़? |
227 |
गरुड, सुदर्शनचक्र
और रानियोंका गर्ब-भड़ |
228 |
श्रीमारुति-गर्व-भड़
रेड |
229 |
भीमसेनका गर्व-भड् |
230 |
सर्वश्रेष्ठ शासक |
231 |
अद्धुत पितृ-भक्ति |
232 |
सत्यकी ज्योति |
233 |
पाँच स्कन्धोंका
संघात (श्रीप्रतापनारायणजी टंडन) |
234 |
विद्याका अहंकार |
235 |
सच्ची दृष्टि |
236 |
मुक्तिका मूल्य |
237 |
अक्रोधेन जयेत्
क्रोधम् |
238 |
कथा-प्रेम |
239 |
नशा उतर गया |
240 |
प्रतिकूल
परिस्थितिसे बचे रहो |
241 |
अपने बलपर अपना
निर्माण (कविरत्र श्रीअमरचन्द्रजी मुनि) |
242 |
अभयका देवता |
243 |
नारी नरसे आगे |
244 |
भोगमेंसे जन्मा
वैराग्य |
245 |
सत्सज्का लाभ |
246 |
महत्त्वपूर्ण दान |
247 |
प्रलोभनोंपर विजय
प्रात करो |
248 |
हमारे कुलमें युवा
नहीं मरते |
249 |
मैं दलदलमें नहीं गिरुगा |
250 |
भगवान् प्रसन्न
होते हैं [गिलहरीपर राम-कृपा |
251 |
मसंस्तक खिक्रय |
252 |
रूर पाए भक्त आचार्य
शंशक |
253 |
कपलपञॉपर गड्भापार
(आचार्य श्रीबलरामजी शास्त्री, एम्ू ए, साहित्यरत) |
254 |
कृत्तेका भय भी
अनित्य है |
255 |
चैदिक धर्मका
उद्धार |
256 |
भगषान् नारायणका
भजन ही सार है भगवानसे विवाह |
257 |
नम्नताके आँसू |
258 |
स्त्रीके सहवाससे
भक्तका पतन |
259 |
ब्राह्मणके कंधेपर |
260 |
छोटी कोठरीमें
भगवहर्शन |
261 |
भगवान् लूट लिये
गये |
262 |
भगवान्की मूर्ति
बोल उठी |
263 |
गुरुप्रासि |
264 |
भगवानूका पेट कब
भरता है? |
265 |
अपना काम स्वयं पूरा
करें |
266 |
सबके कल्याणका
पवित्र भाव |
267 |
भक्त आचार्यकी आदर्श
विनग्रता |
268 |
विद्यादान न देनेसे
ब्रह्मराक्षस हुआ प्रेमपात्र कौन? |
269 |
सत्याग्रह |
270 |
धर्मकी सूक्ष्म गति |
271 |
सच्ची प्रशंसा |
272 |
जीरादेई |
273 |
दुष्टोंको भी
सौजन्यसे जीतिये |
274 |
दानका फल |
275 |
केवल इतनेसे ही
पतन |
276 |
आत्मयज्ञ |
277 |
सच्ची
क्षमा |
278 |
धन्य भामती (श्रीयुत
एस्ू एम् वोरा) |
279 |
किसीकी हँसी उड़ाना
उसे शत्रु बनाना है [दुर्योधनका अपमान] |
280 |
परिहासका दुष्परिणाम
[यादव-कुलको भीषण शाप] |
281 |
भगवजन्नाम का जप
करनेवाला सदा निर्भय है |
282 |
पलक |
283 |
भगवन्नाम समस्त
पापोंको भस्म कर देता है |
284 |
कुनत्तीका त्याग् |
285 |
अद्धभुत क्षमा
[द्रौपदीका मातृभाव] कसा |
286 |
लगन हो तो सफलता
निश्चित है |
287 |
स्वामिभक्ति धन्य है |
288 |
दूसरोंका पाप छिपाने
और अपना पाप प्रकट करनेसे धर्ममें दृढ़ता होती है |
289 |
गोस्वामीजीकी कविता
हि |
290 |
सूरदास और कन्या
(“राधा”) |
291 |
मेरी आँखें पुनः फूट
जाये |
292 |
समर्पणकी
मर्यादा |
293 |
भागवत-जीवन |
294 |
हाथोंमें थाम
लिया |
295 |
व्यासजीकी
प्रसादनिष्ठा ( श्रीवासुदेवजी गोस्वामी ) |
296 |
अनन्य आशा (भक्त
श्रीरामशरणदासजी ) |
297 |
ब्रज-रजपर
निछावर |
298 |
प्रसादका
अपमान |
299 |
लीलामयकी लीला |
300 |
मरते पुत्रको बोध |
301 |
चोरका हृदय
पलटा |
302 |
सम्पत्तिके सब साथी,
विपत्तिका कोई नहीं |
303 |
श्रीधर स्वामीका
संन्यास |
304 |
विकट
तपस्वी |
305 |
निर्मलाकी निर्मल
मति |
306 |
मेरा उगना कहाँ गया?
|
307 |
गृह-कलह रोकनेके
लिये आत्मोत्सर्ग |
308 |
स्वामिभक्ति |
309 |
आतिथ्य-निर्वाह |
310 |
परमात्मा सर्वव्यापक
है |
311 |
गरीबके दानकी महिमा |
312 |
अंत न होइ कोई आपना |
313 |
शेरको अहिंसक भक्त
बनाया (गो्नग्बै) |
314 |
संसारसे सावधान
|
315 |
जो तोकौं काँटा
बुवै, ताहि बोइ तू फूल |
316 |
अम्बादासका कल्याण
(श्रीयुत मा परांडे) |
317 |
अहंकार-नाश (
श्रीयुत एम् एन् धारकर) किन्नर |
318 |
कुत्तेको भी न्याय
[रामराज्यकी महिमा] |
319 |
सिंहिनीका दूध
(गोनण्बै) |
320 |
प्रेम-दयाके बिना ब्रत-उपवास
व्यर्थ |
321 |
परधर्मसहिष्णुताकी
विजय |
322 |
शिवाका आदर्श दान |
323 |
पहले कर्तव्य पीछे
पुत्रका विवाह |
324 |
समय-सूचकका सम्मान |
325 |
उदारताका
त्रिवेणी-सड़म [शिवाजीका ब्राह्मणप्रेम,तानाजीकी स्वामिनिष्ठा ओर ब्राह्मणकी
प्रत्युपकारबुद्धि] (गो्नबै) |
326 |
धन है धूलि समान
(श्रीताराचन्द्रजी अडालजा) |
327 |
पितरोंका आगमन |
328 |
नाथकी भूतदयाकी
फलश्रुति (गोनबै) |
329 |
क्षमाने दुर्जजको
सज्जन बनाया |
330 |
तुकारामजीकी शान्ति |
331 |
पतिसेवासे पति वशमें
(गोनबै) |
332 |
तुकारामका गो-प्रेम |
333 |
भगवान् थाल साफ कर
गये |
334 |
कच्चा बर्तन |
335 |
योगक्षेमं॑
वहाम्यहम् |
336 |
सबमें भगवान् |
337 |
नामदेवका गौके लिये
प्राणदान |
338 |
पारस-कंकड़ एक समान |
339 |
धूलपर धूल डालनेसे
क्या लाभ |
340 |
जब सूली पानी-पानी
हो गयी |
341 |
नित्य-नियमका कठोर
आचरण |
342 |
प्रेम-तपस्विनी
ब्रह्मविद्या| |
343 |
हंसोंके द्वारा
भीष्मको संदेश कल |
344 |
संत बनना सहज नहीं
(गो्न्बै) |
345 |
सभीका ईश्वर एक
था |
346 |
अकालपीड़ितोंकी
आदर्श सेवा |
347 |
अग्नि भी वशमें |
348 |
साधुसे छेड़छाड़ न
करे |
349 |
अपकारका प्रत्यक्ष
दण्ड |
350 |
उजडुपनका इनाम |
351 |
अपनेको पहचानना सहज
नहीं |
352 |
दानाध्यक्षकी
निष्पक्षता |
353 |
मूर्ख छन्दानुरोधेन |
354 |
डाकूसे संत
(श्रीमाणिकलाल शंकरलाल राणा) |
355 |
अपनी कमाईका पकवान
ताजा |
356 |
बाजीराव प्रथमकी
उदारता |
357 |
मधुर विनोद
('राधा') |
358 |
रहस्य-उद्घाटन
[रहीमकी रक्षा] (कुमारी श्रीराधा) |
359 |
मर्यादाका
औचित्य |
360 |
हम-सरीखोंको कौन
जिमाता है |
361 |
भक्तापराध |
362 |
ध्यानमें मधुर
लीलादर्शन |
363 |
ध्यानकी लीला |
364 |
यह
उदारता |
365 |
प्रकाशानन्दजीको
प्रबोध |
366 |
भगवान्की
प्रसन्नता |
367 |
संतका सम्पर्क
|
368 |
मैं श्रीकृष्णसे
मिलने जा रहा हूँ |
369 |
नामनिन्दासे नाक कट
गयी |
370 |
सर्वत्र
गुण-दृष्टि |
371 |
चोरोंका सत्कार
(बाबू महिद्धसिंहजी) |
372 |
डाकूसे
महात्मा (वैद्य श्रीभगवद्यासजी साधु आयुर्वेदाचार्य ) |
373 |
पापका बाप कौन
? |
374 |
विचित्र
दानी |
375 |
सहनशीलता |
376 |
भट्टजीकी जाँघोंपर
भगवान् (राधा) |
377 |
काशीमें मरनेसे
मुक्ति |
378 |
ईमानदारी सबसे बड़ी
सिद्धि |
379 |
धर्मके लिये
प्राणदान |
380 |
सज्जनता |
381 |
सच्चे भाई-बहन |
382 |
सच्ची शिक्षा |
383 |
संतके सामने दम्भ
नहीं चल सकता |
384 |
संतकी
सर्वसमर्थता |
385 |
कुलीनता |
386 |
ब्रह्मज्ञान कब होता
है? |
387 |
मैं मूर्खता क्यों
करूँ |
388 |
हकसे अधिक लेना तो
पाप है |
389 |
सेवाभाव |
390 |
जीव-दया |
391 |
नाग महाशयकी साधुता |
392 |
किसीके फष्टकी बातपर
अविश्वास उचित नहीं |
393 |
आत्मीयता इसका नाम
है |
394 |
शिष्यकी परीक्षा |
395 |
केवल विश्वास चाहिये |
396 |
साधुताका परम आदर्श |
397 |
महापुरुषोंकी उदारता |
398 |
अतिथि-सत्कार |
399 |
स्वावलम्बन |
400 |
|
401 |
|
402 |
सच्ची दानशीलता |
403 |
आदर्श नम्नता |
404 |
सबमें आत्मभा |
405 |
मातृभक्ति |
406 |
मेरे कारण कोई झूठ
क्यों बोले |
407 |
सत्यके लिये त्याग |
408 |
माता-पिताके
चरणोंमें [ प्रथम पूज्य गणेशजी] |
409 |
जाको राखै साइयाँ,
मार सके ना कोय |
410 |
सर गुरुदासकी
कट्टरता |
411 |
महेशकी महानता |
412 |
सदव्यवहार |
413 |
पुजारीको आश्वर्थय |
414 |
भगवानका |
415 |
राक्षसीका उद्धार [
पुण्य-दानकी महिमा] |
416 |
-परोपकारका
आदर्श [सुलक्षणापर शिव-कृपा] |
417 |
न्याय और धर्म
[चमारसे भूमिदान] |
418 |
शास्त्रज्ञानने
रक्षा की |
419 |
विक्रमकी जीव-दया |
420 |
सर्वस्वदान
[हर्षवर्धनकी उदारता] |
421 |
बैलोंकी चोट संतपर |
422 |
संत-दर्शनका प्रभाव
|
423 |
रामूकी तीर्थवात्रा |
424 |
रंगनादकी पितृभक्ति |
425 |
कृतज्ञता |
426 |
गुरुनिष्ठा |
427 |
स्वामी
श्रीदयानन्दजी सरस्वतीके जीवनकी कुछ कथाएँ (श्रीबाबूरामजी गुप्त) |
428 |
मौन व्याख्यान |
429 |
पैदल यात्रा |
430 |
भाव सच्चा होना
चाहिये |
431 |
जीवनचरित कैसे लिखना
चाहिये |
432 |
संकटमें भी
चित्तशान्ति |
433 |
विद्या-व्यासज्ञकी
रुचि |
434 |
कागज-पत्र देखना था,
रमणी नहीं |
435 |
विपत्तिमें भी विनोद |
436 |
स्थितप्रता |
437 |
दुः:खेष्वनुद्ठिग्रमना: |
438 |
सत्याचरण |
439 |
जिह्ाको वशमें रखना
चाहिये |
440 |
अद्धुत
शान्तिप्रियता |
441 |
हस्त-लेखका मूल्य |
442 |
काले झंडेका भी
स्वागत |
443 |
कर्मण्येवाधिकारस्ते
[महात्मा गाँधी और लेनिन (पं श्रीबनारसीदासजी चतुर्वेदी) |
444 |
पूरे सालभर आम नहीं
खाये |
445 |
मारे शरमके चुप |
446 |
अद्भुत क्षमा |
447 |
सहनशीलता |
448 |
रामचरितमानसके दोष |
449 |
मैं खून नहीं पी
सकता |
450 |
चिन्ताका कारण |
451 |
विलक्षण संकोच |
452 |
भगवतू-विस्मृतिका
पश्चात्ताप |
453 |
गोरक्षाके लिये
स्वराज्य भी त्याज्य |
454 |
अन्यायका परिमार्ज |
455 |
डएण-नल-राम-युधिष्ठिर
पूजनीय हैं |
456 |
संतसेवा |
457 |
आदर्श सहनशीलत |
458 |
डडए-विलक्षण क्षमा |
459 |
घट-घटमें भगवान् |
460 |
मैं नहीं मारता तो
मुझे कोई क्यों मारेगा (कु राधा) |
461 |
प्रसादका |
462 |
भगवन्नाममय जीवन |
463 |
परोपकारके लिये अपना
मांस-दान |
464 |
गुप्ताज़ फॉली |
465 |
तुलसीका चमत्कार |
466 |
भगवानके भरोसे
उद्योग कर्तव्य है |
467 |
अहिंसाका चमत्कार |
468 |
हदय-परिवर्तन [
अंगुलिमालका परिवर्तन] |
469 |
इन्द्रिय-संयम
[नर्तकीका अनुताप] |
470 |
निष्पक्ष न्याय [रानीको
दण्ड] |
471 |
अहिंसाकी हिंसाप
विजय |
472 |
वैभवको धिक्कार है [
भरत और बाहुबलि] |
473 |
शूलीसे
स्वर्णसिंहासानरर्र् |
474 |
अडिग निश्चय-सफलताकी
कुंजी |
475 |
सर्वत्र परम पिता (
श्रीलोकनाथप्रसादजी ढाँढनिया) |
476 |
संन्यासी और ब्राह्मणका
धनसे क्या सम्बन्ध? (भक्त श्रीरामशरणदासजी ) |
477 |
स्वप्रके पापका भीषण
प्रायश्चित्त |
478 |
भगवत्सेवक अजेय है
[महावीर हनूमानूजी ] |
479 |
दीनोंके प्रति
आत्मीयता (प्रेषक-श्रीत्रजगोपालदासजी अग्रवाल) |
480 |
संस्कृत-हिंदीको
छोड़कर अन्य भाषाका कोई भी शब्द न बोलनेका नियम (भक्त श्रीरामशरणदासजी ) |
481 |
गो-ब्राह्मण-भक्ति [
स्वर्गीय धार्मिक नरेश परम भक्त महाराज प्रतापसिंहजी काश्मीरके जीवनकी घटनाएँ]
(भक्त श्रीरमशरणदासजी) |
482 |
आजादकी अद्भुत
जितेन्द्रिया |
483 |
सिगरेट आपकी तो उसका
धुआँ किसका? (स्वामीजी श्रीप्रेमपुरीजी ) |
484 |
कर सौं तलवार गहौ
जगदंबा |
485 |
जीव ब्रह्म कैसे
होता है (श्रीयोगेश्वरजी त्रिपाठी बी ए) |
486 |
भगवत्प्रेम |
487 |
पड़ोसी
कौन? |
488 |
दर्शनकी
पिपासा |
489 |
परमात्मामें विश्वास |
490 |
विश्वासकी
शक्ति |
491 |
दीनताका वरण |
492 |
दरिद्रनारायणकी सेवा |
493 |
अमर जीवनकी खोज |
494 |
प्रभुविश्वासी
राजकन्या |
495 |
असहायके आश्रय
|
496 |
क्षणिक जीवन |
497 |
सत्यं शिवं सुन्दरम्
|
498 |
मुझे एक ही बार मना
है |
499 |
गर्व किसपर ? |
500 |
विषपान |
501 |
सत्यभाषणका प्रताप |
502 |
पिताके सत्यको रक्षा |
503 |
आतिथ्यका सुफल
|
504 |
धर्मप्रचारके लिये
जीवनदान |
505 |
मृतकके प्रति
सहानुभूति |
506 |
सच्चा बलिदान |
507 |
संतकी एकान्तप्रियता |
508 |
प्रार्थनाकी शक्ति |
509 |
संतकी निर्भयता |
510 |
सौन्दर्यकी पवित्रता
|
511 |
संतकी सेवा-वृत्ति
|
512 |
संत प्रचारसे दूर
भागते हैं |
513 |
गरजनेके बाद बरसना
भी चाहिये |
514 |
कलाकी पूजा सर्वत्र
होती है |
515 |
मौनकी शक्ति |
516 |
दैन्यकी चरम सीमा
|
517 |
निष्कपट आश्वासन |
518 |
समयका मूल्य |
519 |
भद्रमहिलाका
स्वच्छन्द घूमना उचित नहीं |
520 |
कष्टमें भी क्रोध
नहीं |
521 |
न मे भक्त:
प्रणश्यति |
522 |
व्यभिचारीका जीवन
बदल गया |
523 |
पवित्र अन्न [गुरु
नानकदेवका अनुभव] |
524 |
गुरुभक्ति |
525 |
सत्यनिष्ठा [गुरु
रामसिंह ] |
526 |
पंजाब-केसरीकी
उदारता |
527 |
नामदेवकी
समता-परीक्षा |
528 |
एकनाथजीकी
अक्रोध-परीक्षा -तुकारामका विश्वास |
529 |
सेवाभाव[ समर्थका
पनबट्टा ] |
530 |
देशके लिये
बलिदान |
531 |
उदारता |
532 |
सार्वजनिक सेवाके
लिये त्याग |
533 |
सत्यको शक्तिका
अद्भुत चमत्कार ( श्रीरघुनाथप्रसादजी पाठक) कि |
534 |
सत्यवादितासे
उन्नति |
535 |
सच्ची
मित्रता |
536 |
दो मित्रोंका आदर्श
प्रेम न |
537 |
सद्धावना |
538 |
स्वर्ग ही हाथसे
निकल जायगा |
539 |
प्रार्थनाका प्रभाव
|
540 |
जीवन-दब्रत |
541 |
आप बड़े डाकू हैं
|
542 |
सिकन्दरकी
मातृ-भक्ति न |
543 |
कलाकारकी
शिष्टता |
544 |
सुलेमानका न्याय
|
545 |
चोरीका त्याग |
546 |
सभ्यता |
547 |
देशभक्ति |
548 |
कर्तव्य-पालन |
549 |
आनन्दघनकी खीझ
|
550 |
आज्ञा-पालन |
551 |
भ्रातृप्रेम |
552 |
उत्तम
कुलाभिमान |
553 |
अपनी प्रशंसासे
अरुचि |
554 |
संयम मनुष्यको महान्
बनाता है |
555 |
मानवता |
556 |
सद्धाव |
557 |
अद्भधुत साहस |
558 |
भारको सम्मान दो
|
559 |
न्यूटनकी
निरभिमानता |
560 |
गरीबोंकी उपेक्षा
पूरे समाजके लिये घातक है |
561 |
लोभका बुरा परिणाम
[विचित्र बाँसुरीवाल |
562 |
उसकी मानवता धन्य हो
गयी |
563 |
प्रत्येक व्यक्ति
एक-दूसरेका सेवक हे |
564 |
|
565 |
क्षमाशीलता |
566 |
श्रमका फल |
567 |
अन्त भला तो सब भला
|
568 |
उद्यमका जादू |
569 |
न्यायका सम्मान
(गोनबै) |
570 |
स्वावलम्बनका फल |
571 |
निर्माता और
विजेता |
572 |
स्वावलम्बी
विद्यार्थी |
573 |
आदर्श दण्ड |
574 |
अन्यायका पैसा |
575 |
ई श्वरके विधानपर
विश्वास |
576 |
दीपक जलाकर देखो तो
[ युद्धके समय एक सैनिकका अनुभव] |
577 |
दया |
578 |
अद्धुत
त्याग |
579 |
दयालु बादशाह |
580 |
परोपकार और सचाईका
फल हे |
581 |
जीवन-दर्शन |
582 |
मृत्युकी खोज |
583 |
लड़का गाता रहा |
584 |
महल नहीं,
धर्मशाला |
585 |
दानका फल |
586 |
एकान्त कहीं
नहीं |
587 |
उदार स्वामी |
588 |
विषयोंमें दुर्गन््ध |
589 |
रुपया मिला और भजन
छूटा |
590 |
धनका
परिणाम-हिंसा |
591 |
डाइन खा गयी |
592 |
यह
वत्सलता |
593 |
वह अपने प्राणपपर
खेल गयी |
594 |
मनुष्यका गर्व
व्यर्थ है |
595 |
अच्छी
फसल |
596 |
महान् वैज्ञानिककी
विनम्रता |
597 |
प्रेमका
झरना |
598 |
बुद्धिमानीका परिचय
|
599 |
प्रार्थानाका फल
|
600 |
सच्चा साहसी |
601 |
मृत्युकी घाटी
|
602 |
ईश्वर रक्षक
है |
603 |
दयालु स्वामीके दिये
दुःखका भी स्वागत |
604 |
ईश्वरके
साथ |
605 |
भगवान् सब अच्छा ही
करते हैं |
606 |
सब अवस्थामें
भगवत्कृपाका अनुभ |
607 |
दो मार्ग |
608 |
अहंकार तथा दिखावटसे
पुण्य नष्ट |
609 |
सेवककी इच्छा क्या?
|
610 |
सच्चा साधु |
611 |
सच्चे भक्तका
अनुभव |
612 |
फकीरी क्यों ?
|
613 |
अत्यधिक कल्याणकर
|
614 |
जीवन-क्षण |
615 |
चेतावनी |
616 |
शिक्षा |
617 |
अस्थिर दृष्टि
|
618 |
निष्कपट स्वीकृति |
619 |
सुरक्षार्थ |
620 |
विवशता |
621 |
संत-स्वभाव |
622 |
सहनशीलता |
623 |
सुहद् |
624 |
मनुष्यका मांस |
625 |
संतका व्यवहार |
626 |
क्रोधहीनताका प्रमाण |
627 |
साधुता |
628 |
सहिष्णुता |
629 |
संतका सद्व्यवहार
|
630 |
क्रोध असुर है |
631 |
क्या यह तुझे शोभा
देगा ? |
632 |
दायें हाथका दिया
बायाँ हाथ भी न जान पाये |
633 |
अच्छा पैसा ही अच्छे
काममें लगता है |
634 |
धनके दुरुपयोगका
परिणाम |
635 |
दरिद्र कौन है ?
|
636 |
स्वावलम्बीका बल
|
637 |
नित्य अभिन्न
[उमा-महे श्वर ] |
638 |
मित्र चोर निकला
|
639 |
आप सुलतान कैसे हुए?
|
640 |
सद्धावना-रक्षा |
641 |
तल्लीनता |
642 |
माताकी सेवा |
643 |
करुणाका आदर्श
|
644 |
अतिथिकी योग्यता
नहीं देखनी चाहिये |
645 |
उचित न्याय |
646 |
उपासनामें तन्न्मयता
चाहिये |
647 |
उत्तमताका कारण |
648 |
आजलसे मैं ही
तुम्हारा पुत्र और तुम मेरी माँ |
649 |
ऐसा कोई नहीं
जिससे |
650 |
कोई अपराध न बना हो |
651 |
तू भिखारी मुझे क्या
देगा |
652 |
न्यायकी मर्यादा
|
653 |
शरणागत-रक्षा |
654 |
सच्ची न्यायनिष्ठा |
655 |
अपरिग्रह |
656 |
दानी राजा |
657 |
स्वागतका तरीका
|
658 |
कर्तव्यके प्रति
सावधानी |
659 |
कर्तव्यनिष्ठा |
660 |
नीति |
661 |
अपूर्व स्वामिभक्ति
धि |
662 |
अतिथिके लिये
उत्सर्ग |
663 |
शौर्यका
सम्मान |
664 |
मैं आपका पुत्र हूँ
|
665 |
चन्द्राकी
मरणचन्द्रिका |
666 |
लाजवंतीका
सतीत्व-लालित्य |
667 |
अभिमानकी
चिकित्सा |
668 |
मन्दाकिनीका मोहभड़
] |
669 |
सच्ची पतित्रता [जयदेव-पत्नी] |
670 |
अच्छे पुरुष साधारण
व्यक्तिकी बातोंका भी ध्यान करके कर्तव्यपालन करते हैं |
671 |
नावेरकी सीख |
672 |
प्रेमकी शिक्षा
(प्रेषक-सेठ श्रीहरकिशनजी ) |
673 |
निन्दाकी
प्रशंसा |
674 |
धर्मों रक्षति
रक्षित: |
675 |
उचित
गौरव |
676 |
है और नहीं |
677 |
वस्तुका मूल्य उसके
उपयोगमें है |
678 |
|
679 |
|
680 |
|
681 |
|
682 |
|
683 |
|
684 |
|
685 |
|
686 |
|
687 |
|
688 |
|
689 |
|
690 |
|
691 |
|
692 |
|
693 |
|
694 |
|
695 |
|
696 |
|
697 |
|
698 |
|
699 |
|
700 |
|
701 |
|
702 |
|
703 |
|
704 |
|
705 |
|
706 |
|
707 |
|
708 |
|
709 |
|
710 |
|
711 |
|
712 |
|
713 |
|
714 |
|
715 |
|
716 |
|
717 |
|
718 |
|
719 |
|
720 |
|
721 |
|
722 |
|
723 |
|
724 |
|
725 |
|
726 |
|
727 |
|
728 |
|
729 |
|
730 |
सबसे बड़ा दान अभयदान
|
731 |
अपने प्रति
अन्याय |
732 |
|
733 |
निष्पाप हो वह पत्थर
मारे |
734 |
|
735 |
|
736 |
|
737 |
|
738 |
|
739 |
क्षमा |
740 |
|
741 |
|
742 |
|
743 |
बोलै नहीं तो गुस्सा
मरे |
744 |
क्रोधमें मनुष्य
हितैषीको भी मार डालता है |
745 |
|
746 |
|
747 |
सोनेका दान |
748 |
|
749 |
|
750 |
|
751 |
|
752 |
|
753 |
|
754 |
|
755 |
|
756 |
|
757 |
|
758 |
|
759 |
|
760 |
|
761 |
|
762 |
|
763 |
|
764 |
प्राणी-सेवासे
ब्रह्मानन्दकी प्राप्त |
765 |
|
766 |
|
767 |
|
768 |
|
769 |
|
770 |
|
771 |
|
772 |
पुरुष या स्त्री?
|
773 |
|
774 |
|
775 |
|
776 |
|
777 |
|
778 |
|
779 |
भगवानूपर
मनुष्य-जितना भी विश्वास नहीं? |
780 |
|
781 |
|
782 |
|
783 |
नीचा सिर क्यों? |
784 |
|
785 |
|
786 |
|
787 |
|
788 |
|
789 |
|
790 |
|
791 |
|
792 |
|
793 |
|
794 |
|
795 |
|
796 |
|
797 |
|
798 |
|
799 |
|
800 |
|
801 |
|
802 |
|
803 |
|
804 |
|
805 |
|
806 |
|
807 |
|
808 |
|
809 |
|
810 |
|
811 |
|
812 |
|
813 |
|
814 |
|
815 |
|
816 |
|
817 |
|
818 |
|
819 |
|
820 |
|
821 |
|
822 |
|
823 |
|
824 |
|
825 |
|
826 |
|
827 |
|
828 |
|
829 |
|
830 |
|
831 |
|
832 |
(डॉ श्रीयतीशचन्द्र
राय) |
833 |
|
834 |
(भक्त
श्रीोरामशरणदासजो ) |
835 |
|
836 |
(श्रीहरिश्वन्द्रदासजी
नी ए) |
837 |
अद्भधुत ठदारता |
838 |
|
839 |
|
840 |
|
841 |
|
842 |
|
843 |
|
844 |
|
845 |
|
846 |
मन -आत्म प्रचार से
विमुखता (श्रीहरिकृष्णदासजी गुप्त हरि ) |
847 |
(श्रीकृष्णगोपालजी
माथुर ) नल |
848 |
मुझे अशर्फियोंके
थाल नहीँ, मुट्टीभर
आटा चाहिये (भक्त
श्रीरामशरणदासजी ) |
849 |
ब्रजवासियोंके टुकड़ोंमें जो आनन्द
है, वह अन्यत्र
कहीं नहों है |
850 |
|
851 |
श्रद्धा और मनोबलका
चमत्कार (कविविनोद वैद्यभूषण पं
श्रोठाकुरदत्तजी शर्मा ' वैद्य ') |
852 |
|
853 |
|
854 |
|
855 |
|
856 |
|
857 |
|
858 |
|
859 |
|
860 |
|
861 |
|
862 |
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863 |
खूब विचारकर कार्य
करनेसे ही शोभा है |
864 |
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865 |
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866 |
बहुफतका सत्प |
867 |
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868 |
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869 |
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870 |
ममग्के मुख्रोंको
अनिल्यला |
871 |
अवनार-क था |
872 |
ब्राफल्याकतर
कया |
873 |
बराक च्छकवनारकथा |
874 |
त्रीवातहावनार-कचा |
875 |
श्रोतृभिहावनारकचा |
877 |
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878 |
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880 |
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881 |
आखिर क्यों
भगवान राम ने
विभीषण के अपराध
का दंड भोगा
- Not a generous world sat Katha Ank. |
882 |
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883 |
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884 |
संसार के सुखों
की अनित्यता - Impermanence of the pleasures of the world
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धन का
घमंड अकेला कर
देता है (आनंद)
-Pride of wealth makes alone (bliss) |
887 |
सेक्स एजुकेशन और
भगवद गीता - Sex Education and Bhagavad Gita |
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